मैं अकेला ही चला था ज़ानिब ए मंज़िल
लोग आते गए कारवाँ बनता गया
क्या खूब कहा था मजरूह ने
पर न जाने किस ज़माने में
क्योंकि आज के दौर में तो सब
लगे हैं बस अपना कारवां बचाने में
आज लिखता मजरूह अगर
तो कुछ उल्टा होता ऐसा असर
दोस्तों को पूरा कारवां लेकर चला था
लोग निकलते गए मैं अकेला होता गया
मेरे दोस्त हैं या पतझड़ में फ़ूल
कुछ मौसम बिताये और चले गये
महफ़िल लगाई रौनक जमाई
कुछ वक्त बिताया और चले गए
जब साथ आये थे तो शोर शराबा
दूर गए तो सन्नाटे में
एक चिट्ठी थमाई गले लगाया
बस्ता उठाया और चले गए
मेरे दोस्त हैं या रेल के हमसफ़र
के स्टेशन आया और चले गए
साथ खाया पिया अंताक्षरी खेली
सुबह सामान उठाया और चले गए
दोस्ती है दोस्तों कोई रिश्तेदारी तो नही
जो रस्मों क़समों रिवाजों में उलझी है
तो क्यों शर्तो में बंध गए हम तुम
जानते हुए ये की नही सबको ये मिलती है
मेरे दोस्त हैं या सर्दी का मौसम
के धूप खिली और चले गए
कुछ अनबन कुछ कहासुनी हुई
मुह फुलाया और चले गए
रोक लेता मैं अगर एक मुश्किल न होती
मुश्किल ये कि मैं अब बड़ा हो गया हूं
अब रोना मनाना मुझपे जंचता नही
तुमने सोचा मुझे फ़र्क नही तो चले गए
मेरे दोस्त हैं या अच्छे दिन
कि कुछ पल हसाया और चले गए
न मेरी सुनी न अपना सुनाया
बस मन बनाया और चले गए
आजाओ यारों लौट करके तूम
फ़िर नुक्कड़ पे जमा हों जाएंगे
दोस्ती नीभालें बस यहीं मौत तक
फिर कह देंगे के आये और चले गए
यह भी पढ़े : फिर से जीना …