गले मे टाई फसा कर अकड़ अकड़ कर चलते हो
कोई और आगे निकल जाए तो मन ही मन उबलते हो
जो तुमसे पीछे रह जाये उसपर हँसी आती है
कोई तुमसे बेहतर हो तो उससे इतना जलते हो
पास में खेलते बच्चों की गेंद तुम्हारे पास गिरे तो घूरते हो
तुम्हे और कोई काम नही है क्या? बच्चो से ऐसा पूछते हो
इतनी नफरत क्यों अचानक तुम्हे मस्ती मज़ाक से हो गयी
कुछ साल पहले तक तुम भी बच्चे थे ये क्यों भूलते हो
कुछ सालों में ही अगर तुम बचपन को अपने भूल गये
नाम याद नही उन दोस्तों के जिनके साथ थे स्कूल गये
उन बच्चों को देखकर भी अगर अपने दिन तुमको याद आते नही
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
अगर साईकल सीखते हुए घुटने नही छिले
और चेन की ग्रीस के दाग कपड़ो पे नही मिले
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
लालच में आके सारी जैम्स को हाथों में भरके
अगर उनका रंग अपनी हथेलियों पर नहीं उतारा
संतरे वाली टॉफ़ी को संतरे की नकल करके नही खाया
और फैंटम में असली सिगरेट का मज़ा नही उठाया
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
रविवार को छुट्टी होने के बावजूद जल्दी नही उठे
ताकि रंगोली टर्रम टू और डक टेल्स देख पाएं
आइस क्रीम वाले को रोकने के लिए अगर पीछे नही भागे
और चीनी से बुढ़िया के बाल बनते देख खुशी से नही चौंके
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
सर्दियों की धूप सेकते दादी दादी के इर्द गिर्द
अगर खेलते कूदते हुए चक्कर नही कांटे
बादल गरजते ही जब सब बड़े घर के अंदर की तरफ आते थे
उस समय तुम उल्टा बाहर नहीं भागे
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
बारिश से गली में बनती नदी में अगर कागज़ की नॉव नही उतारी
और नाली में उसके ओझल होने तक आंखों से नही की उसकी सवारी
दोस्तों संग खेलते खेलते अगर सूरज नही डुबाया
और माँ के बुलाने पर पांच मिनट कहके उन्हें नही बहलाया
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
स्कूल के कपड़े बदले बिना खेलने नही गए
और इस बात पर माँ की डांट नही पड़ी
खेलते हुए गिर गयी गेंद अगर नाली से नही उठायी
पड़ोसियों से डाँट और माँ बाप से मार नही खाई
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
बिजली चले जाने पर अगर छुपन छुपाई नही खेला
और कभी भी अगर देखा नही दशहरा का मेला
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
याद करने बैठो तो बचपन के कितने किस्से हैं
सोचो तो वो ही जीवन के सबसे बेहतर हिस्से हैं
पर आज तुमने उन सब पर क्यों पर्दा डाल दिया
और बचपन को ही बचपना कहकर टाल दिया
क्यों इतने अस्त व्यस्त हो गये ज़िन्दगी काटने में
जब पता भी है खुशियाँ मिलती ही हैं खुशियाँ बांटने में
तो क्यों मुँह लटकाये सारा दिन निकाल देते हो
या तो किसी से उलझने में या किसीको डांटने में
अगर किसी की शरारत देखकर अपना बचपन याद न आये
और इतनी सी उम्र काटने मे ही बचपना अंदर से मर जाये
तो क्या खाक तुमने बचपन जिया है
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